पश्चिम सिंहभूम में नक्सलियों की कमर तोड़ने वाले आईपीएस अधिकारी को अपेक्षित पदोन्नति नहीं, बल्कि पुलिस प्रशिक्षण केंद्र में भेजे जाने से गहराया विवाद; राजनीतिक साजिश की आशंका
प्रश्नों के घेरे में एक ‘सफल’ अधिकारी का ट्रांसफर
रिपोर्ट : शैलेश सिंह
पश्चिम सिंहभूम के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक आशुतोष शेखर का हालिया ट्रांसफर राज्य प्रशासनिक हलकों और आम जनता के बीच चर्चाओं का केंद्र बन गया है। सामान्य प्रक्रिया के तहत किया गया यह स्थानांतरण पहली नजर में सामान्य प्रतीत होता है, लेकिन जैसे ही यह सामने आया कि उन्हें पुलिस प्रशिक्षण केंद्र (पीटीसी), पदमा भेजा गया है – पूरे कोल्हान प्रमंडल में हैरानी की लहर दौड़ गई।
पुलिस महकमे से लेकर आम जनता तक यह सवाल कर रही है – आखिर नक्सलियों की रीढ़ तोड़ने वाले इस जुझारू आईपीएस अधिकारी को इनाम की जगह प्रशिक्षण केंद्र में क्यों भेजा गया?
सारंडा के गढ़ में कायम की थी ‘शांति की पुलिसिंग’
आशुतोष शेखर के नेतृत्व में पश्चिम सिंहभूम जिला नक्सल प्रभावित क्षेत्र से शांति के पथ पर अग्रसर हुआ। कोल्हान, सारंडा और पोड़ाहाट के जंगली इलाकों में उन्होंने सीआरपीएफ के साथ संयुक्त अभियान चलाकर नक्सलियों की कमर तोड़ दी थी। कभी जहां माओवादियों का साम्राज्य हुआ करता था, वहां अब पुलिस कैम्प और तिरंगा लहराता है।
उनकी टीम ने दर्जनों सफल मुठभेड़ों को अंजाम दिया। कई वांछित भाकपा माओवादी और पीएलएफआई नक्सली ढेर किये गये, अनेक गिरफ्तार हुए और कई आत्मसमर्पण भी किये। गुप्त सूचना के आधार पर नक्सलियों के बनाए स्थायी बंकर ध्वस्त किए गए, भारी मात्रा में हथियार, विस्फोटक और आधुनिक संचार उपकरण जब्त किए गए। यह अभियान महज रणनीति नहीं बल्कि जमीनी कार्यशैली का परिणाम था।
बनाया जनता से संवाद का पुल, बंद कराई ‘तस्करी की धंधेबाजी’
नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस और आम जनता के रिश्ते अक्सर तनावपूर्ण होते हैं। लेकिन आशुतोष शेखर ने इस दूरी को खत्म किया। उन्होंने मानकी-मुंडा जैसी पारंपरिक ग्राम स्तरीय संस्थाओं के साथ सीधा संवाद स्थापित किया और स्थानीय लोगों को मुख्यधारा से जोड़ने में उल्लेखनीय कार्य किया।
उनके कार्यकाल में हब्बा-डब्बा और लौह अयस्क की अवैध तस्करी पर लगभग पूर्ण विराम लग गया था। यह इलाका जहां खनिज माफिया, नक्सली और राजनैतिक संरक्षण की तिकड़ी से जूझता रहा है, वहां यह उपलब्धि साधारण नहीं थी।
लोकतंत्र की रक्षा में निभाई अहम भूमिका
लोकसभा और विधानसभा चुनाव के दौरान पश्चिम सिंहभूम जैसे नक्सल प्रभावित जिले में शांतिपूर्ण चुनाव कराना हमेशा से एक बड़ी चुनौती रहा है। लेकिन आशुतोष शेखर के नेतृत्व में इन चुनावों का सफल और निष्पक्ष संचालन हुआ। यह न केवल प्रशासनिक कार्यकुशलता का प्रमाण था, बल्कि यह भी दिखाता है कि सुरक्षा बलों और स्थानीय प्रशासन में आपसी समन्वय कितना मजबूत हुआ।
बड़े अपराधों का खुलासा और गिरफ्तारी में रहे अव्वल
पिछले दो वर्षों के दौरान जिले में घटित कई सनसनीखेज अपराधों की गुत्थियों को सुलझाने में आशुतोष शेखर की टीम ने प्रमुख भूमिका निभाई। चाहे वह फिरौती के मामले हों या फिर संगठित आपराधिक गिरोहों की गतिविधियाँ – सबका कुशलतापूर्वक संचालन कर गिरफ्तारी सुनिश्चित की गई। पुलिस की सक्रियता ने अपराधियों के हौसले पस्त कर दिये थे।
जनता और विभाग – दोनों ने की थी सराहना
उनके कार्यकाल के दौरान पश्चिम सिंहभूम में न सिर्फ अपराध पर नियंत्रण हुआ बल्कि पुलिस की छवि भी बदली। आम नागरिकों में पुलिस के प्रति विश्वास बढ़ा। शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों में आशुतोष शेखर की कार्यशैली की व्यापक सराहना हुई।
जिले से जाने के बाद भी आज भी लोग उनके नाम से उन्हें याद करते हैं। कई जनप्रतिनिधियों ने भी सोशल मीडिया पर उनकी तारीफ की और उनके योगदान को ‘अभूतपूर्व’ करार दिया।
ट्रांसफर से निराशा, एसएसपी बनाने की थी उम्मीद
इन सभी उपलब्धियों के आधार पर आम धारणा थी कि आशुतोष शेखर को पदोन्नति देकर एसएसपी बनाकर रांची, जमशेदपुर या धनबाद जैसे बड़े शहरों की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। लेकिन यह उम्मीद उस वक्त टूट गई जब स्थानांतरण सूची में उनका नाम ‘पुलिस अधीक्षक, पीटीसी, पदमा’ के रूप में सामने आया।
यह पद न तो क्षेत्रीय कमान का हिस्सा है और न ही मैदान में होने वाले अभियानों से जुड़ा हुआ। इसे एक तरह से प्रशासनिक ‘कूलिंग ऑफ’ पोस्ट कहा जा रहा है, जहां अधिकारियों को या तो ब्रेक दिया जाता है या उन्हें ‘पार्श्व’ में डाल दिया जाता है।
प्रशासनिक ‘न्याय’ की मांग
पूर्व सैन्य अधिकारी, पुलिस सेवा के पूर्व आईपीएस अधिकारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस फैसले पर नाराजगी जताई है। कई लोगों ने सोशल मीडिया के माध्यम से आशुतोष शेखर के पक्ष में आवाज उठाई है। उनका मानना है कि सरकार को ऐसे अधिकारियों को पुरस्कृत करना चाहिए न कि हतोत्साहित।
वरिष्ठ पत्रकारों और कानून व्यवस्था के जानकारों का भी कहना है कि यदि ऐसे अधिकारियों को किनारे किया गया, तो इससे राज्य में ईमानदार पुलिसिंग पर असर पड़ेगा। युवाओं में एक गलत संदेश जाएगा कि मेहनत करने और नक्सलवाद व माफियावाद के खिलाफ लड़ने का कोई फायदा नहीं।
लोकतंत्र के प्रहरी को मिली ‘सजा’?
आशुतोष शेखर का यह ट्रांसफर उन तमाम पुलिस अधिकारियों के लिए एक चेतावनी की तरह देखा जा रहा है, जो दबाव में झुकने के बजाय कानून का पक्ष लेते हैं। यह सवाल अब हर ओर से उठ रहा है – क्या वास्तव में नक्सलवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ने का पुरस्कार ‘साइडलाइन’ पोस्टिंग है?
आगे क्या?
इस पूरी स्थिति में अब सबकी निगाहें सरकार की अगली चाल पर टिकी हैं। क्या राज्य सरकार इस फैसले पर पुनर्विचार करेगी? क्या विपक्ष इसे मुद्दा बनाकर सदन में उठाएगा? क्या जनता और मीडिया का दबाव रंग लाएगा?
आशुतोष शेखर जैसे अधिकारी जो मिशन मोड में काम करते हैं, उन्हें सिस्टम में टिके रहने के लिए राजनीतिक संरक्षण की नहीं बल्कि प्रशासनिक न्याय की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
झारखंड जैसे राज्य में जहां कानून व्यवस्था और नक्सलवाद हमेशा से चुनौती रहा है, वहां ऐसे अधिकारियों की जरूरत सबसे अधिक है। आशुतोष शेखर का ट्रांसफर महज एक प्रशासनिक फैसला नहीं, बल्कि राज्य की सुरक्षा और पुलिसिंग के मूल ढांचे को प्रभावित करने वाला कदम है। सरकार को चाहिए कि वह इस पर आत्ममंथन करे और योग्यता का सम्मान सुनिश्चित करे।