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महाप्रभु के राम-परशुराम अवतार में अलौकिक दर्शन: सरायकेला की विश्वविख्यात छऊ परंपरा ने मोहा मन

 

राजा-रजवाड़ों की परंपरा में आज भी जीवित है संस्कृति और अध्यात्म का अद्भुत संगम

सरायकेला।
विश्वविख्यात छऊ नृत्य की धरती सरायकेला में मंगलवार को महाप्रभु श्रीजगन्नाथ के अलौकिक दर्शन का अद्वितीय अवसर भक्तों को प्राप्त हुआ, जब भगवान ने राम और परशुराम के अवतार में अपना दिव्य रूप धारण किया। यह परंपरा न केवल आध्यात्मिक भावों की अभिव्यक्ति है, बल्कि सरायकेला की सांस्कृतिक धरोहर का जीवंत प्रमाण भी है।

सरायकेला की पहचान उसकी अनूठी छऊ नृत्य परंपरा से जुड़ी है, जिसे तत्कालीन राजाओं के संरक्षण और आध्यात्मिक समर्पण ने न केवल पल्लवित किया, बल्कि इसे विश्व मंच तक पहुंचाया। राजा-रजवाड़ा काल से चली आ रही इस अद्भुत परंपरा ने सरायकेला को अध्यात्म और संस्कृति का एक ऐसा केन्द्र बना दिया है, जिसकी मिसाल मिलना कठिन है।

महाप्रभु के अलौकिक वेश – राम और परशुराम अवतार

सरायकेला की रथयात्रा की श्रृंखला में महाप्रभु श्रीजगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के विग्रहों का विशेष श्रृंगार किया गया। इस वर्ष महाप्रभु को राम और परशुराम के वेश में सजाया गया, जिसने श्रद्धालुओं को भावविभोर कर दिया। यह दृश्य न केवल भक्तों के लिए आध्यात्मिक अनुभव था, बल्कि सांस्कृतिक चेतना का भी प्रतीक बन गया।

इस अद्भुत वेश सज्जा का निर्देशन गुरु श्री सुशांत महापात्र के नेतृत्व में किया गया। सज्जा कार्य में श्री पार्थ सारथी दास, श्री उज्वल सिंह, श्री सुमित महापात्र, श्री अनुभव सत्पथी, श्री रूपेश महापात्र, श्री अमित महापात्र, श्री विक्की सत्पथी, श्री शुभम कर, श्री मुकेश साहू और गौतम मुखर्जी ने अपनी कला और समर्पण से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

महापात्र परिवार की ऐतिहासिक भूमिका

सरायकेला की इस अनुपम परंपरा में महापात्र परिवार की अहम भूमिका है। दशकों से यह परिवार महाप्रभु के विविध वेशों की साज-सज्जा करता आ रहा है। यही वह विशेषता है जो सरायकेला की रथयात्रा को वैश्विक स्तर पर एक अनूठी पहचान देती है। परंपरा के साथ आधुनिकता का यह सुंदर समन्वय कला और भक्ति की एक नई परिभाषा प्रस्तुत करता है।

परंपरा में अब भी जुड़ा है राजपरिवार

पुरी की तर्ज पर सरायकेला में रथयात्रा के सभी अनुष्ठान आज भी वर्तमान महाराज के संरक्षण में संपन्न होते हैं। यही कारण है कि यहां की रथयात्रा न केवल धार्मिक उत्सव है, बल्कि यह राजा-महाराजाओं की संस्कृति और परंपरा का जीवंत प्रतीक बनकर उभरती है। छऊ नृत्य, वेशभूषा, भक्ति संगीत और पारंपरिक अनुष्ठानों का संगम इस पर्व को और भी विराट बना देता है।

कला, अध्यात्म और जनसहभागिता का संगम

इस अवसर पर नगर पंचायत के पूर्व उपाध्यक्ष मनोज कुमार चौधरी, गोविंद साहू, छोटेलाल साहू सहित कई श्रद्धालु उपस्थित रहे। स्थानीय जनसमुदाय और बाहर से आए श्रद्धालुओं ने महाप्रभु के दर्शन कर स्वयं को धन्य माना। दर्शन के साथ-साथ भक्तों ने छऊ नृत्य की विविध प्रस्तुतियों का भी आनंद लिया।

निष्कर्ष:

सरायकेला की यह परंपरा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि यह क्षेत्र की सांस्कृतिक आत्मा है। महाप्रभु के राम-परशुराम वेश न केवल अलौकिक अनुभव कराते हैं, बल्कि यह भी सिखाते हैं कि परंपराएं तब तक जीवंत रहती हैं जब तक समाज और संस्कृतिकर्मी उन्हें श्रद्धा और निष्ठा के साथ संजोते हैं। सरायकेला की रथयात्रा और उसमें सम्मिलित छऊ परंपरा विश्व को भारतीय संस्कृति की अनोखी झलक देती है।

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