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75 साल की आज़ादी के बाद भी नहीं बनी सड़क: सारंडा के काशिया-पेचा तक जाने वाला रास्ता बना ग्रामीणों की मजबूरी और सिस्टम की नाकामी का प्रतीक

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नक्सल प्रभावित क्षेत्र की अनदेखी: बारिश में महीनों बंद रहता है आवागमन, एंबुलेंस भी फंस चुकी है कीचड़ में, जनप्रतिनिधि सिर्फ वोट के वक्त दिखते हैं

विशेष रिपोर्ट: शैलेश सिंह ।
झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम ज़िले के नक्सल प्रभावित सारंडा जंगल क्षेत्र में स्थित छोटानागरा और गंगदा पंचायत के अंतर्गत जोजोगुटू से काशिया-पेचा होते हुए घाटकुड़ी तक की लगभग 11-12 किलोमीटर लंबी ग्रामीण सड़क आज तक नहीं बन पाई है। यह वही इलाका है जहाँ सरकारें हर बार “विकास के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचने” की बात करती हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे बिल्कुल उलट है।


🌧️ बारिश आते ही कट जाता है संपर्क, चार महीने तक ग्रामीण रहते हैं पूरी तरह अलग-थलग

इस जर्जर मार्ग पर वर्षात के मौसम में तीन से चार महीने तक किसी भी प्रकार का आवागमन संभव नहीं होता। कीचड़ और दलदल के कारण दोपहिया तो छोड़िए, पैदल चलना भी जोखिम भरा हो जाता है। बाकी महीनों में भी स्थिति कुछ बेहतर नहीं है—धूल, गड्ढे और पथरीले रास्ते वाहन चालकों के लिए मौत का आमंत्रण साबित होते हैं।

🚑 एम्बुलेंस भी फंसी कीचड़ में: मानवता शर्मसार

पिछले वर्ष काशिया-पेचा गांव में एक बीमार व्यक्ति को ले जाने के लिए भेजी गई सरकारी एम्बुलेंस कीचड़ में इस कदर फंस गई कि घंटों तक ग्रामीणों ने उसे धक्का देकर बाहर निकाला। ऐसे में सवाल उठता है—जब आपातकालीन स्वास्थ्य सेवाएं तक न पहुंच सकें, तो फिर किस विकास की बात की जा रही है?


🗳️ चुनाव आते ही शराब-मुर्गा, फिर सालों की चुप्पी

ग्रामीणों का आरोप है कि जनप्रतिनिधि केवल चुनाव के वक्त शराब और मुर्गा बांटकर वोट बटोरने आते हैं, फिर अगले पांच वर्षों तक उनके दर्शन भी नहीं होते।
काशिया-पेचा गांव में आज़ादी के बाद से लेकर अब तक शायद ही कोई विधायक या सांसद गया हो, क्योंकि “जहां रास्ता ही नहीं है, वहां नेता क्यों जाएंगे?”


🗣️ स्थानीय प्रतिनिधियों का फूटा दर्द: “शर्मनाक है ये उपेक्षा”

छोटानागरा पंचायत की मुखिया मुन्नी देवगम ने साफ कहा:

“यह हम सबके लिए दुर्भाग्य की बात है कि आज भी हम ऐसी बुनियादी सुविधा से वंचित हैं। हर साल सिर्फ वादे होते हैं, लेकिन हकीकत शून्य है।”

जोजोगुटू गांव के मुंडा कानुराम देवगम का कहना है कि

“गांव के बच्चे, बीमार और बुजुर्ग कई बार बीच रास्ते में फंस जाते हैं। ये सिर्फ एक सड़क नहीं, हमारी जिंदगी और इज्ज़त का सवाल है।”

काशिया-पेचा के समाजसेवी मंगता सुरीन ने तीखे शब्दों में कहा:

“जब हमारे रिश्तेदार दूसरे राज्य से आते हैं और इस रास्ते को देखते हैं, तो सरकार और व्यवस्था को कोसते हैं। हमें शर्मिंदगी होती है।”


🚧 क्या सड़क बनवाना इतना मुश्किल है? या फिर यह क्षेत्र अब भी ‘पराया’ है?

एक तरफ सरकारें झारखंड के वन क्षेत्रों में “इको टूरिज्म”, “कनेक्टिविटी”, और “विकास” की बड़ी-बड़ी बातें करती हैं, दूसरी ओर आज भी आदिवासी बहुल इलाकों में एक सीधी सड़क तक नहीं बन पाई। यह सड़क न सिर्फ आवागमन, बल्कि गंभीर बीमारियों में अस्पताल तक पहुंच, बच्चों की शिक्षा, रोज़गार के लिए बाहर निकलने और महिलाओं की सुरक्षा जैसे सवालों से जुड़ी है।


क्या प्रशासन सो रहा है, या यहां की जनता वोट देने के बाद भुला दी जाती है?

हर साल बजट में ग्रामीण सड़क योजना, पीएमजीएसवाई, डीएमएफटी जैसे फंड की चर्चा होती है। लेकिन सवाल है—क्या इन योजनाओं का लाभ इस इलाके को नहीं मिलना चाहिए? या फिर सारंडा के आदिवासी सिर्फ आंकड़ों में ‘विकास’ का हिस्सा बनते हैं, जमीनी हकीकत में नहीं?


🧭 जनता का सीधा सवाल: “अबकी बार सड़क नहीं, तो वोट भी नहीं”

स्थानीय युवाओं और ग्रामीणों ने यह साफ चेतावनी दी है कि

“अब हमें कोई बहाना नहीं चाहिए। या तो सरकार सड़क बनाए, या फिर चुनाव में यहां से वोट की उम्मीद छोड़ दे।”


यह खबर सरकार, प्रशासन और स्थानीय जनप्रतिनिधियों के लिए आईना है। सवाल यह नहीं कि सड़क क्यों नहीं बनी, बल्कि यह है कि अब तक क्यों नहीं बनी?

अब यह वक्त है कि झूठे वादों से ऊपर उठकर सरकार जमीन पर काम करे। क्योंकि विकास का मतलब सिर्फ शहरी चमक नहीं, बल्कि इन ग्रामीण पथों पर जीवन की रफ्तार लौटाना है।

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