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सड़क बनी विनाश की राह: सारंडा के आदिवासियों की उम्मीदें भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ीं

कुमडीह- कुदलीबाद सड़क

 

झारखंड सरकार के विकास प्रयासों को ठेकेदार-प्रशासन की मिलीभगत ने किया ध्वस्त, कुमडीह-कुदलीबाद-कोलाईबुरु सड़क और मारंगपोंगा-पुल भ्रष्टाचार के जिंदा सबूत

सारंडा से शैलेश सिंह की रिपोर्ट ।

झारखंड के अत्यंत नक्सल प्रभावित क्षेत्र सारंडा के बीहड़ जंगलों में झारखंड सरकार द्वारा आदिवासी ग्रामीणों को मुख्यधारा और विकास से जोड़ने के उद्देश्य से बनाई गई कुमडीह-कुदलीबाद-कोलाईबुरु सड़क भ्रष्टाचार की ऐसी बलि चढ़ गई है कि अब यह सड़क न रहकर ग्रामीणों के लिए घाव बन गई है। निर्माण के महज कुछ महीनों बाद ही यह सड़क पूरी तरह उखड़ गई है और इसपर चलना ग्रामीणों के लिए जान जोखिम में डालने जैसा हो गया है।

कुमडीह- कुदलीबाद सड़क

ग्रामीणों ने पहले ही जताई थी आपत्ति, फिर भी बनी ‘घोटालों की सड़क’

निर्माण के दौरान ही स्थानीय ग्रामीणों ने घटिया सामग्री के उपयोग का आरोप लगाकर काम रुकवाया था। विभाग ने कागजों पर गुणवत्ता जांच की रस्म अदायगी कर दी लेकिन जांच करने पहुंचे अधिकारी भी शायद ठेकेदार द्वारा पहनाई गई भ्रष्टाचार की चश्मा से सड़क को “उत्तम” बताकर लौट गए। आज सड़क पर पड़ी ढीली गिट्टियों और उखड़े डामर के बीच ग्रामीण कहते हैं—“ये सड़क हमारा विकास नहीं, विनाश लेकर आई है।”

अब जख्मी हो रहे हैं पाँव और टूट रही हैं साइकिलें

कभी यह सड़क मिट्टी और मुरुम की होती थी, जिस पर पैदल और साइकिल से आदिवासी सहजता से आवाजाही कर लेते थे। लेकिन अब टूटी हुई सड़क पर चलने से न केवल उनके पैर जख्मी हो रहे हैं, बल्कि साइकिलें और छोटे वाहन भी टूट रहे हैं।

नक्सल प्रभावित क्षेत्र में सुरक्षा बलों के लिए भी बना खतरा

यह सड़क न सिर्फ ग्रामीणों के लिए, बल्कि सुरक्षा बलों के लिए भी एक जरूरी मार्ग थी। पुलिस को नक्सल विरोधी अभियानों के लिए इसी रास्ते से गुजरना पड़ता है। लेकिन अब इस जर्जर सड़क में कहीं भी नक्सली आईईडी प्लांट कर सकते हैं, जिससे बड़ी घटना होने की आशंका बनी हुई है। यह पूरी सड़क आरोहण बिल्डर्स—एक चर्चित ठेका कंपनी जो राँची के अशोक प्रधान की बताई जाती है—द्वारा बनाई गई थी।

उसरुईया पूल

पुल नहीं, मौत का फंदा बन रहा मारंगपोंगा-उसरुईया निर्माणाधीन पुल

सड़क के अलावा, सारंडा के ग्राम मारंगपोंगा और उसरुईया को जोड़ने वाला पुल भी भ्रष्टाचार की मार झेल रहा है। यह पुल अबतक अधूरा है और जो बना है उसमें भी भारी गड़बड़ी सामने आई है। एप्रोच रोड से लेकर गार्ड वॉल तक, हर हिस्से में घटिया सामग्री और निर्माण में लापरवाही साफ दिखती है।

निरीक्षण के बाद भी कार्रवाई नहीं, ‘जंगल राज’ की खुली तस्वीर

पूर्व सांसद गीता कोड़ा ने इस पुल का निरीक्षण कर स्पष्ट रूप से भ्रष्टाचार की बात कही थी और इस मुद्दे को सार्वजनिक मंचों पर भी उठाया था। इसके बावजूद आज तक किसी अधिकारी या ठेकेदार पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। न तो अभियंता कार्यस्थल पर मौजूद रहते हैं और न ही विभागीय अफसर निरीक्षण को आते हैं। ग्रामीणों का साफ कहना है कि—“इस जंगल में कानून नहीं, ठेकेदारों का राज चलता है। हम सिर्फ शोषित होते हैं।”

जीवन की डोर बना यह पुल अब मौत की राह

ग्रामीणों के अनुसार, इस अधूरे पुल के कारण उन्हें नदी पार कर आना-जाना पड़ता है, जिससे कई बार वाहन और इंसान तेज बहाव में बह चुके हैं। यहां तक कि नक्सल ऑपरेशन के दौरान सीआरपीएफ की गाड़ियाँ भी इसी कारण हादसे का शिकार हो चुकी हैं। यह पुल ग्रामीणों की “लाइफलाइन” है, लेकिन सरकारी उपेक्षा और ठेकेदारों की लूट ने इसे जानलेवा बना दिया है।

प्रशासन की चुप्पी से बढ़ा ठेकेदारों का हौसला

पूरे मामले में सबसे हैरानी की बात यह है कि शिकायतों, मीडिया रिपोर्ट्स और स्थानीय जनप्रतिनिधियों के हस्तक्षेप के बावजूद अबतक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है। स्थानीय ग्रामीणों का आरोप है कि अधिकारियों की मिलीभगत के बिना इतने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार संभव ही नहीं।

क्या वाकई सरकार विकास चाहती है या सिर्फ फाइलों में आंकड़े?

सरकार ने सारंडा जैसे अति संवेदनशील क्षेत्रों में करोड़ों रुपये खर्च कर विकास कार्य प्रारंभ किए, लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि न ठेकेदारों पर अंकुश है, न अफसरों की जवाबदेही तय है। इससे साफ है कि विकास सिर्फ घोषणा पत्रों में दर्ज है, जमीन पर नहीं।

अब क्या चाहते हैं ग्रामीण?

ग्रामीणों की मांग है:

पूरे प्रकरण की उच्चस्तरीय जांच हो।

ठेकेदार आरोहण बिल्डर्स और जिम्मेदार अधिकारियों पर एफआईआर दर्ज हो।

कुमडीह-कुदलीबाद-कोलाईबुरु सड़क और मारंगपोंगा पुल का दोबारा गुणवत्तापूर्ण निर्माण हो।

संवेदनशील क्षेत्र को देखते हुए नियमित निगरानी व निगरानी समितियों की नियुक्ति हो।

निष्कर्ष:

सारंडा के जंगल में जहाँ सरकार विकास की रोशनी पहुंचाना चाहती थी, वहाँ भ्रष्टाचार ने अंधकार फैला दिया है। अगर सरकार वाकई आदिवासियों की चिंता करती है, तो उसे इस भ्रष्टाचार पर त्वरित और कठोर कार्रवाई करनी होगी। अन्यथा, यह ‘सड़क और पुल’ आने वाले दिनों में नक्सलियों के लिए वरदान और शासन के लिए अभिशाप बन सकते हैं।

 

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