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सारंडा में प्रस्तावित वन्यप्राणी सेंचुरी: जंगल बचेगा, आदिवासियों को मिलेगा सम्मानजनक जीवन, भारत को मिलेगी विरासत

खनिज दोहन पर लगेगा अंकुश, जैव विविधता को मिलेगा संरक्षण, आदिवासी संस्कृति और आजीविका को नया आधार

रिपोर्ट : शैलेश सिंह

एशिया का सबसे बड़ा साल वन, 700 पहाड़ियों की घाटी, हाथियों का पारंपरिक मार्ग, और प्राकृतिक संपदा से भरपूर झारखंड का सारंडा जंगल अब देश के सबसे बड़े वन्यप्राणी अभयारण्यों में शुमार होने जा रहा है। भारत सरकार और झारखंड राज्य सरकार की साझा पहल पर 575 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में प्रस्तावित “सारंडा वन्यप्राणी सेंचुरी” की योजना ने एक नई उम्मीद जगाई है—न केवल जंगल को बचाने की, बल्कि जंगल में जी रहे लोगों को भी सम्मानपूर्वक जीवन देने की।

जहां एक ओर पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस निर्णय को ऐतिहासिक बताया है, वहीं दूसरी ओर खनिज माफियाओं और औद्योगिक घरानों के हितों को गहरी चोट लगी है। वर्षों से जंगल की आड़ में लूट मचाने वाले समूह अब इस योजना को रोकने के लिए पर्दे के पीछे से जोड़-तोड़ में जुटे हैं।

🌿 प्राकृतिक संपदा और परंपरा का अद्वितीय संगम है सारंडा

‘सारंडा’ जिसका अर्थ होता है—‘साल के सात सौ पहाड़’, सचमुच एक मिथकीय जंगल है। यह क्षेत्र सैकड़ों प्रजातियों के जीव-जंतुओं का घर है, जिनमें एशियाई हाथी, भालू, बाघ, तेंदुआ, हिरण, कोटरा, सांभर, दुर्लभ पक्षी और कीट शामिल हैं। लेकिन यह जंगल केवल पेड़ों और जानवरों का नहीं है—यह हो, मुंडा, उरांव, संथाल जैसे आदिवासी समुदायों की जीवनशैली, संस्कृति और परंपरा का भी अंग है।

यहां की नदियाँ, झरने, पौधे, जानवर और आदिवासी जीवन एक-दूसरे में रचे-बसे हैं। यही कारण है कि जब सरकार ने इसे “वन्यप्राणी सेंचुरी” के रूप में संरक्षित करने की बात कही, तो आदिवासियों ने इसे केवल पर्यावरणीय संरक्षण नहीं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक पुनर्प्राप्ति के रूप में देखा। हालांकि सेंचुरी से जुडा़ मामला अभी सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है।

⛏️ खनिज माफियाओं की बेचैनी: जंगल पर कुंडली मारने वालों को नहीं रास आया यह फैसला

सारंडा जंगल के गर्भ में अपार लौह अयस्क छिपा है, और यही इसकी सबसे बड़ी विडंबना रही है। टाटा स्टील, सेल, रूंगटा, बिड़ला ग्रुप आदि अनेक खनन कंपनियाँ वर्षों से इस क्षेत्र में सक्रिय रही हैं। कुछ खनन कंपनियां इस जंगल को छिन्न-भिन्न कर, पहाड़ियों को खोखला कर मुनाफा कमा चली गई है। तथा कुछ नया खनन पट्टा लेने हेतु हाथ-पांव मार रही है।

अब जब सरकार ने इस क्षेत्र को संरक्षित वन्यप्राणी सेंचुरी में बदलने का प्रस्ताव रखा है, तो यह नीतिगत बदलाव सीधे इन कंपनियों के मुनाफे पर हमला है।

सेंचुरी बनने से:

  • नई खदानों की स्वीकृति पूरी तरह बंद हो जाएगी,
  • सेंचुरी वाले क्षेत्रों में खनन पूरी तरह से प्रतिबंधित रहेगा,
  • वन्य जीवों और पारिस्थितिकी को नुकसान पहुँचाने वाली गतिविधियाँ अवैध होंगी।
  • यही वजह है कि खनिज माफिया अपने राजनीतिक संबंधों और लॉबिंग के जरिए इस योजना को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं।

🧍‍♂️ आदिवासियों को क्या मिलेगा लाभ?

वर्षों से जंगल की गोद में जीने वाले आदिवासी समुदायों को यह योजना कई स्तरों पर राहत दे सकती है—यदि इसे संवेदनशीलता के साथ लागू किया गया।

✔️ 1. खनन से मुक्ति:

अवैध खनन ने न केवल जंगल को बर्बाद किया, बल्कि आदिवासियों की खेती, जलस्रोत और जीवन भी संकट में डाल दिया। सेंचुरी बनने से यह सब संरक्षित होगा।

✔️ 2. इको-टूरिज्म का विस्तार:

सारंडा का सौंदर्य, वन्य जीवन और सांस्कृतिक विविधता पर्यटकों के लिए आकर्षण बन सकता है। इससे स्थानीय युवाओं को रोजगार के अवसर—जैसे गाइड, होमस्टे संचालन, हस्तशिल्प और परंपरागत भोजन सेवा—प्राप्त होंगे।

✔️ 3. वन अधिकार कानून का कार्यान्वयन:

Forest Rights Act (FRA) के तहत उन्हें अपने पुश्तैनी अधिकार मिलेंगे, जिससे उनकी जमीन, जंगल और संसाधनों पर वैध दावा स्थापित होगा।

✔️ 4. लघु वनोपज का व्यवसायीकरण:

सखुआ पत्ता, महुआ, साल बीज, तेंदू पत्ता आदि के संग्रहण और विपणन में स्थानीय वन समितियों की भागीदारी बढ़ेगी। इससे सीधे आर्थिक लाभ मिलेगा।

🌏 झारखंड और भारत को क्या मिलेगा फायदा?

🌱 बायोडायवर्सिटी का संरक्षण:

सारंडा जैसे क्षेत्र को संरक्षित करना भारत की जलवायु प्रतिबद्धताओं (Climate Commitments) को पूरा करने की दिशा में ठोस कदम होगा।

🌦️ पर्यावरणीय संतुलन की बहाली:

तेजी से घटते भूजल स्तर, बढ़ती गर्मी और अनियमित वर्षा जैसी समस्याओं का समाधान इस सेंचुरी से सम्भव हो सकता है।

🏞️ राष्ट्रीय धरोहर का दर्जा:

सारंडा को एक संरक्षित क्षेत्र में बदलना न केवल स्थानीय स्तर पर, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी भारत की छवि को बेहतर बनाएगा।

✌️ नक्सल समस्या में कमी:

जब स्थानीय युवाओं को प्रकृति आधारित वैकल्पिक और स्थायी रोजगार मिलेंगे, तो नक्सली गतिविधियों के लिए आधार कमजोर होगा।

तो देरी क्यों हो रही है?

सूत्र बताते हैं कि सेंचुरी प्रस्ताव को अंतिम रूप मिलते ही कुछ खनन कंपनियों ने केंद्र व राज्य सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। वे चाहते हैं कि प्रस्तावित क्षेत्र में से उनके पट्टे वाली जमीन को बाहर रखा जाए या सेंचुरी का दायरा सीमित कर दिया जाए।

हालांकि वन विभाग और सामाजिक संगठनों की ओर से स्पष्ट मांग है कि सेंचुरी योजना को उसके मूल स्वरूप में ही लागू किया जाए। इससे ही सार्थक संरक्षण और आदिवासी हित सुरक्षित रह सकते हैं। सेंचुरी से जुडा़ मामला अभी सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है।

    हालांकि सारंडा में जो खदानें पहले से संचालित है, उसके लीज क्षेत्र से लगभग 2 – 3 किलोमीटर की दूरी के बाहर से सेंचुरी का सीमा तय किया गया है। इससे पहले से खनन कंपनियों व सेंचुरी को आपस में कोई परेशानी नहीं आने वाली है।

🔭 भविष्य की राह: क्या होना चाहिए सरकार का अगला कदम?

  • समयबद्ध क्रियान्वयन की रूपरेखा तैयार की जाए।
  • स्थानीय समुदाय को संरक्षक और भागीदार बनाया जाए।
  • खनन कंपनियों के प्रभाव को समाप्त कर नया लीज नहीं दिया जाए।
  • इको-टूरिज्म और हेरिटेज पर्यटन के लिए बुनियादी ढांचा विकसित किया जाए।
  • वन अधिकारों को प्राथमिकता दी जाए और इसके कार्यान्वयन की निगरानी सुनिश्चित हो।

🧭 निष्कर्ष: सिर्फ जंगल नहीं, आत्मा बचाने की लड़ाई है यह

सारंडा में प्रस्तावित वन्यप्राणी सेंचुरी केवल एक पारिस्थितिक कदम नहीं, बल्कि यह आदिवासी अस्मिता, भारत की पारंपरिक जैव विविधता और भविष्य की पीढ़ियों के हक की रक्षा करने वाली नीति है। सरकार को चाहिए कि वह उद्योगपतियों और खनिज माफियाओं के दबाव में न आए, बल्कि जनभागीदारी और पारदर्शिता के साथ इस योजना को लागू करे।

यह लड़ाई सिर्फ पेड़ों या जानवरों के लिए नहीं है—यह लड़ाई उस आत्मा के लिए है जो जंगलों में बसती है, जो सदियों से जीवित है और जिसे अब एक बार फिर से जीवंत होने का मौका मिला है।

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