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सारंडा में नक्सली हिंसा: एक पैर नहीं, रोज़गार की रीढ़ तोड़ी गई

आइईडी विसफोटक में घायल साहू बरजो

 

बालिबा के साहू बरजो आइईडी विस्फोट में गंभीर रूप से घायल, वनोपज पर निर्भर ग्रामीणों की आजीविका पर मंडराया संकट

रिपोर्ट : शैलेश सिंह ।
झारखंड के सबसे घने व संवेदनशील जंगलों में शुमार सारंडा क्षेत्र एक बार फिर नक्सली हिंसा की चपेट में आ गया है। छोटानागरा थाना क्षेत्र के बालिबा गांव निवासी साहू बरजो (35 वर्ष), जो जंगल से पत्ता तोड़ने गए थे, नक्सलियों द्वारा पूर्व से लगाए गए आइईडी की चपेट में आकर गंभीर रूप से घायल हो गए। यह घटना 31 मई को दोपहर लगभग 2 बजे बाजीनाथ डेरा जंगल में हुई, जो बालिबा गांव से करीब 8-10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

आइईडी विसफोटक में घायल साहू बरजो

घटना में साहू बरजो का बायां पैर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया। ग्रामीणों ने उन्हें खाट पर लादकर पैदल गांव पहुंचाया और फिर अन्य साधनों की मदद से छोटानागरा थाना होते हुए बेहतर इलाज के लिए भेजा गया। यह अकेली घटना नहीं, बल्कि उन हजारों ग्रामीणों की रोज़ी-रोटी पर हुआ हमला है जिनकी जीविका जंगलों पर निर्भर है।

जंगल है जीवन का आधार

सारंडा क्षेत्र के अधिकांश गांव, खासकर बालिबा, तिरिलपोसी, दीघा, हतनाबुरु, मारंगपोंगा, कुमडीह, बहदा, तितलीघाट जैसे इलाकों में बसे आदिवासी समुदायों की आजीविका वनोत्पाद पर टिकी हुई है। तेंदू पत्ता, महुआ, साल बीज, चिरौंजी, लाख और लकड़ी जैसे उत्पाद यहां के लोगों के लिए केवल वनोपज नहीं, बल्कि जीवन का पर्याय हैं।

साहू बरजो भी हर साल की तरह इस बार गर्मी में पत्ता तोड़ने जंगल गए थे, ताकि आगामी हाट-बाजार में उसे बेचकर परिवार के लिए अन्न और दवा जुटा सकें। लेकिन नक्सलियों के द्वारा पुलिस को निशाना बनाने की नीयत से लगाए गए आइईडी की चपेट में आकर वह खुद निशाना बन गए। यह कोई इत्तफाक नहीं, बल्कि जंगल पर निर्भर जीवन-व्यवस्था को बाधित करने की संगठित रणनीति का हिस्सा है।

नक्सलियों की रणनीति: सुरक्षा बलों से पहले आम ग्रामीण निशाने पर

सारंडा में पिछले दो दशकों से नक्सली गतिविधियाँ लगातार ग्रामीण जनजीवन को प्रभावित करती आ रही हैं। कभी सुरक्षाबलों के नाम पर ग्रामीणों को प्रताड़ित किया जाता है तो कभी नक्सली उन्हें मुखबिर कहकर जान से मार देते हैं। अब हालिया घटनाएं यह संकेत दे रही हैं कि नक्सली अपने रणनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आम आदिवासी ग्रामीणों की आर्थिक रीढ़ पर ही प्रहार कर रहे हैं।

आइईडी बिछाकर वन उत्पादों के रास्तों को असुरक्षित बना देना न सिर्फ एक रणनीतिक सैन्य चाल है, बल्कि इससे जंगल से जुड़ी आर्थिक गतिविधियों को पूर्णतः ठप किया जा सकता है। इससे ग्रामीणों की निर्भरता सरकार या तटस्थ शक्तियों पर बढ़ेगी — एक स्थिति जिसे नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्र में स्वीकार नहीं करते।

“हम जंगल नहीं जाएंगे अब”: डर और भूख के बीच झूलते ग्रामीण

साहू बरजो की इस दर्दनाक घटना के बाद बालिबा गांव में एक अघोषित आपातकाल जैसा माहौल है। महिलाएं बच्चों को लेकर सहमी हुई हैं, और पुरुषों ने जंगल जाना अस्थायी रूप से बंद कर दिया है। पत्ता, महुआ और साल के बीजों का मौसम अब समाप्ति की ओर है, लेकिन लोगों की झोलियाँ खाली हैं।

गांव के ही एक बुजुर्ग कहते हैं, “हम जंगल से साल में करीब 10-15 हजार रुपये कमा लेते थे। अब डर के मारे कोई जंगल नहीं जा रहा। साहू को देखकर सबके होश उड़ गए हैं। न पैर बचा, न रोजगार।”

पुलिस की चुनौती: सुरक्षा के साथ आजीविका की बहाली

इस घटना के बाद छोटानागरा थाना व सीआरपीएफ की संयुक्त टीम ने जंगल के कई हिस्सों में सर्च अभियान चलाया। हालांकि पुलिस ने इस घटना को सुरक्षा बलों को लक्ष्य बनाकर की गई कार्रवाई बताया, लेकिन इससे ग्रामीणों का नुकसान अधिक हुआ है।

एक पुलिस अधिकारी ने नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताया, “नक्सली सुरक्षाबलों की मूवमेंट पर हमला करने के लिए आइईडी लगाते हैं। पर जब स्थानीय ग्रामीण उसी इलाके से गुजरते हैं, तब नुकसान उनका होता है। हम सर्च अभियान के साथ साथ ग्रामीणों को सुरक्षित वन मार्ग उपलब्ध कराने की दिशा में भी काम कर रहे हैं। ग्रामीणों को विभिन्न माध्यमों से जागरुक किया जाता है।”

“जंगल बचा है, पर रोजगार लहूलुहान”

यह वाक्य सारंडा के हालात को सटीक रूप से प्रतिबिंबित करता है। जंगल आज भी उतना ही घना, समृद्ध और हराभरा है जितना पहले था, लेकिन वहां जाने वाले रास्ते अब खून से रंगे हैं। नक्सली हिंसा ने इन रास्तों को बारूद का गलियारा बना दिया है।

झारखंड सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाएं — जैसे वन उत्पाद खरीद की MSP योजना, महिला स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से वनोपज का संग्रहण आदि — भी तब तक निष्प्रभावी रहेंगी जब तक जंगलों में कदम रखना जान हथेली पर रखने के बराबर होगा।

प्रशासनिक विफलता या रणनीतिक चूक?

सवाल यह उठता है कि क्या प्रशासन को इस बात का पूर्वानुमान नहीं था कि गर्मी के मौसम में ग्रामीण जंगलों की ओर जाएंगे? क्या जंगलों में संभावित आइईडी की सफाई के लिए विशेष दस्ते नहीं भेजे जाने चाहिए थे? और यदि नक्सलियों की गतिविधियां पहले से चिन्हित हैं तो फिर ग्रामीणों को सुरक्षित मार्ग उपलब्ध कराने की कोई पूर्व व्यवस्था क्यों नहीं की गई?

यह चूक नहीं, प्रशासनिक उपेक्षा का घातक उदाहरण है। और इसका खामियाजा भुगतना पड़ा साहू बरजो को, और अब भुगतना पड़ रहा है पूरे बालिबा को।

सामाजिक और आर्थिक संकट की डोर से बंधी हिंसा

यह घटना एक बार फिर इस बात को रेखांकित करती है कि नक्सलवाद केवल एक सुरक्षा चुनौती नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक ढांचे के असंतुलन की उपज है। जब तक आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा, संचार और सुरक्षा के ठोस उपाय नहीं किए जाते, तब तक सारंडा जैसे इलाके हिंसा और असुरक्षा की गिरफ्त से बाहर नहीं निकल सकते।

एक स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता कहती हैं, “नक्सली हमसे हमारी जमीन, हमारा जंगल, हमारा रोजगार और अब हमारी जान भी छीन रहे हैं। सरकार सिर्फ ऑपरेशन चला रही है, लेकिन जो मूलभूत समस्याएं हैं, उन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा।”

क्या चाहिए अब?

संवेदनशील गांवों में वन-रोजगार के लिए वैकल्पिक मार्गों की व्यवस्था।

जंगल के प्रवेश बिंदुओं की नियमित जांच और डी-आइईडी स्क्वॉड की तैनाती।

पीड़ितों और उनके परिवार को मुआवजा व पुनर्वास योजना के तहत सहायता।

स्थानीय ग्रामीणों की निगरानी और सूचना नेटवर्क को प्रशिक्षित एवं संरक्षित करना।

दीर्घकालिक समाधान हेतु शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण कुटीर उद्योगों का विकास।

निष्कर्ष: यह एक व्यक्ति की त्रासदी नहीं, एक समूचे तंत्र की विफलता है

साहू बरजो की चोटें भर जाएँगी या शायद नहीं, लेकिन जो घाव बालिबा के हर घर में रिस रहा है, वह नासूर बन चुका है। यह केवल एक घायल व्यक्ति की कहानी नहीं, बल्कि उन लाखों ग्रामीणों की पुकार है जो हर सुबह जंगल की ओर इस उम्मीद से जाते हैं कि शाम को कुछ पत्ते, कुछ फल, कुछ बीज लेकर लौटेंगे और जीवन को अगले दिन तक बढ़ा पाएँगे।

लेकिन अब उन रास्तों पर बारूद है, और हर कदम पर मौत मंडरा रही है। अगर अब भी सरकार नहीं जागी, तो आने वाले दिनों में सारंडा के जंगल महज हरियाली के प्रतीक नहीं, बेरोजगारी, भय और अंतहीन हिंसा की गवाही बन जाएंगे।

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