भोजपुर-रोहतास के किसानों की पुकार: ‘विकास’ ने छीना खेत, पानी और उम्मीद
भूमि की लूट: सरकारी जमीन पर खुलेआम कब्जा
रिपोर्ट : शैलेश सिंह ।
बिहार के भोजपुर (आरा) और रोहतास (सासाराम) जिलों के गांव और प्रखंड आज एक गंभीर संकट से जूझ रहे हैं—वह है सरकारी भूमि पर बढ़ता अतिक्रमण। खेतों की प्यास बुझाने वाले आहर, करहा, सिंचाई कूप, नहर, तालाब और नाला जैसी परंपरागत जल संरचनाएं लगातार मिटती जा रही हैं। सरकारी लापरवाही और ‘विकास’ के नाम पर हो रहे निर्माण कार्यों ने इन इलाकों की जल व्यवस्था को बर्बादी के कगार पर पहुँचा दिया है।
जहां ये जल स्रोत कभी खेती की रीढ़ थे, आज वे या तो ग़ायब हैं या अवैध निर्माणों की बलि चढ़ चुके हैं। फोर लेन, टू लेन सड़कों का विस्तार, गांवों में हो रहा अनियंत्रित शहरीकरण और सरकारी भूमि पर कब्जा एक ऐसी त्रासदी रच रहे हैं, जिसका सीधा शिकार किसान बन रहे हैं।

कभी जीवनदायिनी थीं ये संरचनाएं, आज सिर्फ नाम के निशान
किसानों की पीड़ा स्पष्ट है—“हमारे पूर्वजों ने गांवों में खेती के अनुकूल ढांचागत व्यवस्था बनाई थी। बारिश के दिनों में पानी आहर और तालाबों में जमा होता था और अतिरिक्त पानी करहा और नालों के माध्यम से बहकर नदी में चला जाता था। लेकिन अब तो इन सबको पाटकर घर, दुकान या सड़कों के किनारे पार्किंग बना दिया गया है।”
पूर्व में इन जल स्रोतों के चलते न जल जमाव होता था, न बाढ़। खेत समय पर सूखते थे और धान, गेहूं, अरहर जैसी फसलें भरपूर होती थीं। लेकिन आज वही खेत बारिश में पानी में डूबे रहते हैं और फसलें नष्ट हो जाती हैं।
‘विकास’ की असलियत: सड़कों के विस्तार ने छीनी सिंचाई की व्यवस्था
फोर लेन और टू लेन सड़कों का निर्माण चाहे जितना आधुनिक लगे, वह ज़मीनी हकीकत से आंखें मूंद लेने जैसा है। ग्रामीण क्षेत्रों में हो रहा सड़क चौड़ीकरण बिना ड्रेनेज या वाटर चैनल की समुचित योजना के किया जा रहा है। सड़क निर्माण कंपनियां मिट्टी डालकर आहर-करहा और नहरों को समतल कर रही हैं।
इससे न केवल बारिश का पानी खेतों में जमा हो रहा है, बल्कि परंपरागत जल recharge system भी ध्वस्त हो गया है। इससे नलकूप और कुएं भी धीरे-धीरे सूखते जा रहे हैं, जो पहले साल भर किसानों को सिंचाई का भरोसा देते थे।

सरकारी चुप्पी और प्रशासनिक शिथिलता
ग्रामीणों का आरोप है कि प्रशासन जानबूझकर आंखें मूंदे बैठा है। ग्रामीणों ने कई बार बीडीओ, सीओ और जिला अधिकारी को आवेदन देकर अवैध कब्जे हटाने की मांग की, लेकिन कार्रवाई शून्य है। उलटे प्रशासन उन लोगों के साथ खड़ा दिखाई देता है जो सरकारी जमीन पर अवैध निर्माण कर रहे हैं।
कई जगह पंचायत स्तर पर मिलीभगत की बात सामने आई है, जहां ग्रामीण प्रतिनिधि खुद आहर और करहा की जमीनों को ‘दखल में’ देकर कुछ सौ या हजार रुपये में अवैध रूप से बेच रहे हैं। इससे न केवल भूमि की लूट हो रही है, बल्कि पारंपरिक जल संरचनाएं खत्म हो रही हैं।
अवैध कब्जा और राजनीतिक संरक्षण का गठजोड़
यह कोई संयोग नहीं है कि जिन जमीनों पर कब्जा हुआ है, वहां अक्सर स्थानीय नेताओं, माफिया तत्वों या प्रभावशाली लोगों के हाथ होते हैं। इन तत्वों को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त होता है और प्रशासनिक कार्रवाई नदारद रहती है। मिट्टी भरकर तालाब पाट देना या नाले को घर में बदल देना अब आम बात हो गई है।
किसानों का सवाल वाजिब है—अगर सरकार खुद अपनी जमीन की रक्षा नहीं कर सकती, तो किसानों से उम्मीद किस बात की की जाए? “जिस आहर में हमारा खेत पानी से सींचता था, अब वहीं बाइक की दुकान बन गई है।”
प्राकृतिक जल प्रबंधन की हत्या: कृषि उत्पादन पर संकट
कृषि विशेषज्ञ मानते हैं कि पारंपरिक जल संरचनाएं ही बिहार जैसे राज्य की कृषि की रीढ़ थीं। आहर-पईन, नहर, तालाब और करहा जैसे ढांचे न केवल सिंचाई के लिए उपयोगी थे, बल्कि पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में भी मदद करते थे। ये जलस्रोत भूजल रिचार्ज में भी सहायक थे।
आज जब ये सब मिटा दिए गए हैं, तो जलस्तर नीचे गिर रहा है, और किसान न तो सिंचाई कर पा रहे हैं, न बुवाई। परिणामस्वरूप, फसल उत्पादन में भारी गिरावट आई है, जिससे किसानों की आय घट रही है और कर्ज का बोझ बढ़ रहा है।
बारिश अब वरदान नहीं, अभिशाप बन गई है
जहां पहले किसान बारिश का स्वागत करते थे, अब वे डरते हैं। हर साल मानसून में भारी बारिश के कारण खेतों में जलजमाव हो जाता है। क्योंकि ड्रेनेज की कोई व्यवस्था नहीं बची है, पानी महीनों तक खेतों में जमा रहता है। इससे फसल सड़ जाती है या बर्बाद हो जाती है।
भोजपुर जिले के एक किसान रामचंद्र राय बताते हैं, “पिछले साल धान की बुवाई की थी, लेकिन बारिश में खेत में इतना पानी जमा हो गया कि फसल ही गल गई। एक एकड़ में हमें 40 क्विंटल फसल मिलती थी, अब 10 क्विंटल भी नहीं।”
नीति, नियोजन और नियत पर सवाल
बिहार सरकार की ‘जल-जीवन-हरियाली योजना’ और ‘गांव-गांव सड़क’ जैसे अभियान सिर्फ कागज़ पर ही नजर आते हैं। अगर गांव की हर सड़क बना दी जाए लेकिन आहर और तालाब पाट दिए जाएं, तो इसका लाभ किसे? किसान तो बर्बाद हो ही रहा है, जलवायु और पर्यावरण भी इसकी कीमत चुका रहे हैं।
विकास के नाम पर अंधाधुंध सड़कें और शहरीकरण, बिना किसी इकोलॉजिकल या ग्रामीण सामाजिक संरचना की समझ के लागू किया जा रहा है। और यही वजह है कि नीति और नियोजन दोनों ही फेल साबित हो रहे हैं।
स्थायी समाधान की आवश्यकता: किसान और प्रकृति के बीच संतुलन जरूरी
स्थिति यह मांग करती है कि:
सरकारी भूमि का सर्वे कर सभी जल स्रोतों की पहचान की जाए और उनका संरक्षण सुनिश्चित हो।
जिन जल स्रोतों पर अवैध कब्जा हुआ है, उन्हें तत्काल हटाया जाए और दोषियों पर कार्रवाई हो।
सड़क निर्माण में ड्रेनेज और जल निकासी की योजना को अनिवार्य किया जाए।
किसानों को जल प्रबंधन और सिंचाई के पारंपरिक तरीकों पर प्रशिक्षण और सहायता दी जाए।
समाप्ति: सवाल किसानों का ही नहीं, पूरे समाज का है
इस रिपोर्ट का निष्कर्ष यही है कि यदि सरकार ने अविलंब कोई ठोस कदम नहीं उठाया, तो भोजपुर और रोहतास जैसे उपजाऊ जिलों की पहचान ही मिट जाएगी। यह केवल किसानों का संकट नहीं है, यह अन्नदाता से अन्न छीनने का संगठित अभियान है। और जब अन्नदाता भूखा होगा, तब पूरा देश भुगतेगा।
अब समय आ गया है कि नीति-निर्माता, प्रशासन और समाज—तीनों एक साथ आगे आएं और खेत, किसान और जल स्रोत की इस त्रासदी को रोकें। वरना विकास की यही सड़कें हमें बर्बादी की ओर ले जाएंगी।