1917 में ब्रिटिशों द्वारा बसाया गया बालिबा गांव अब भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित, नक्सली हिंसा और सरकार की उपेक्षा बनी रही बाधा, वर्षा में दुनिया से कट जाता है संपर्क
रिपोर्ट : शैलेश सिंह
एशिया के सबसे बड़े साल वन क्षेत्र सारंडा के घने जंगलों में बसा बालिबा गांव एक ऐसी त्रासदी का प्रतीक बन गया है, जो आजादी के 75 वर्ष बाद भी विकास की धारा से कोसों दूर है। ब्रिटिश शासन काल में वर्ष 1917 में अपने प्रशासनिक एवं आर्थिक हितों के लिए बसाया गया यह गांव आज 108 साल बीतने के बावजूद पक्की सड़क जैसी बुनियादी सुविधा से वंचित है।
इतिहास में दर्ज, लेकिन विकास से दूर
बालिबा न सिर्फ ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि सुरक्षा और रणनीतिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र है। यह मनोहरपुर प्रखंड और दीघा पंचायत के अंतर्गत आता है तथा सारंडा के सबसे सुदूरवर्ती और घने जंगलों में स्थित है। वर्षों से घोर नक्सल प्रभावित इस गांव का नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तब सामने आया, जब 7 अप्रैल 2004 को नक्सलियों ने सीआरपीएफ और झारखंड पुलिस के जवानों पर भीषण हमला कर 29 जवानों को शहीद कर दिया।
इस हमले में जिले के तत्कालीन एसपी स्वर्गीय प्रवीण कुमार सिंह बाल-बाल बचे, लेकिन उनका वाहन और सुरक्षा दल के कई वाहन फूंक दिए गए थे। यह घटना झारखंड और भारत के इतिहास में सबसे बड़ा नक्सली हमला माना गया, जिसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया।
विकास का पहिया थमा हुआ, सड़क अब भी सपना
आजादी के बाद जब देश में विकास की योजनाएं गाँव-गाँव तक पहुँचने लगीं, तब भी बालिबा गांव इन योजनाओं से दूर रहा। पक्की सड़क का निर्माण आज तक नहीं हो सका है। गाँव तक पहुँचने के लिए वन विभाग द्वारा बनाई गई पत्थरों से भरी कच्ची सड़क ही एकमात्र सहारा है, जो थोलकोबाद, कुमडीह और छोटानागरा से होकर जाती है।
वर्षा के मौसम में यह रास्ता लगभग अनुपयोगी हो जाता है। फिसलन, गड्ढे और जंगल की उबड़-खाबड़ राहों के बीच बालिबा का संपर्क दुनिया से पूरी तरह कट जाता है। नक्सली गतिविधियों की वजह से हर समय IED विस्फोट का खतरा बना रहता है, जिससे सड़क निर्माण कार्य शुरू होने से पहले ही ठप हो जाता है।
चारों ओर सड़क, लेकिन बालिबा अब भी उपेक्षित
यह विडंबना ही है कि सारंडा के आसपास के तमाम वनग्रामों तक पक्की सड़कें पहुँच चुकी हैं, लेकिन बालिबा अब भी सड़क की बाट जोह रहा है। यहां तक कि संचार सुविधा का पूर्ण अभाव होने के कारण यह गांव आज भी मोबाइल नेटवर्क या इंटरनेट की पहुंच से बाहर है। स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली और पीने के पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं भी केवल कागजों में सिमटी हुई हैं।
नक्सलियों से लड़ रही है पुलिस, लेकिन सरकार की चुप्पी जारी
सालों से नक्सली प्रभाव से जूझ रहे बालिबा में कुछ माह पूर्व पुलिस कैंप की स्थापना हुई है और सरकार की ओर से सारंडा को नक्सल मुक्त क्षेत्र घोषित करने की दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन विडंबना यह है कि जहां सुरक्षा बलों ने जान जोखिम में डाल कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है, वहीं राज्य सरकार ग्रामीणों के जीवन को आसान बनाने में नाकाम साबित हुई है।
पिछड़ेपन की बेड़ियों में जकड़े आदिवासी
बालिबा गांव में आदिवासी समुदाय की बड़ी आबादी रहती है, जो आज भी पारंपरिक जीवनशैली और जंगल पर आधारित जीविका पर निर्भर है। सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की अनुपलब्धता ने इनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति को बदतर बना दिया है। कोई भी विकास योजना इस गांव तक पहुँच ही नहीं पाती। सरकारी टीमों के लिए यहाँ तक पहुँचना जोखिम से भरा मिशन बन गया है। ग्रामीण सड़क के अभाव में स्थानीय हाट-बाजारों में वनोत्पाद व कृषि उत्पाद बेच नहीं पाते हैं।
बालिबा: प्रतीक बनता जा रहा सरकारी असफलता का
बालिबा गांव आज सरकारी योजनाओं की असफलता का जीता-जागता उदाहरण बन चुका है। न तो राज्य सरकार और न ही केंद्र सरकार ने इस गांव की सुध ली। समय-समय पर नेता, अधिकारी और मीडिया इस गांव की चर्चा तो करते हैं, लेकिन वास्तविक बदलाव के प्रयास सिर्फ घोषणाओं तक सीमित रह जाते हैं।
अब भी समय है: सड़क के सहारे बदल सकता है भविष्य
अगर सरकार आज भी इस गांव के प्रति गंभीर हो जाए और यहां तक पक्की सड़क, मोबाइल टावर और जरूरी बुनियादी ढांचा स्थापित करे, तो बालिबा की तस्वीर बदल सकती है। एक गांव जो कभी नक्सली हमले के लिए कुख्यात था, वह अब शांतिपूर्ण विकास की मिसाल बन सकता है।
बालिबा सिर्फ एक गांव नहीं, बल्कि यह उस सरकारी उपेक्षा, ग्रामीण संघर्ष और आदिवासी पीड़ा का प्रतीक बन चुका है जिसे अब और अनदेखा करना इतिहास के साथ अन्याय होगा।
[विशेष आग्रह:]
सरकार से ग्रामीणों की अपील है कि बालिबा को भी अन्य वनग्रामों की तरह बुनियादी सुविधाओं से जोड़ा जाए, ताकि इस ऐतिहासिक और संवेदनशील गांव को एक विकसित और सुरक्षित भविष्य की ओर ले जाया जा सके।