भोजपुर के पचमा गांव में लावारिस पड़ा सफाई वाहन बना सवालों का केंद्र; आखिर गंदगी जाए तो जाए कहां?
रिपोर्ट : शैलेश सिंह भोजपुर, बिहार।
‘स्वच्छ भारत मिशन’ की तस्वीरें टीवी पर चमक रही हैं, लेकिन जमीनी हालात बिल्कुल उलट हैं। भोजपुर जिले के पीरो प्रखंड अंतर्गत नारायणपुर पंचायत के पचमा गांव, वार्ड संख्या-13 में खड़ा कचरा संग्रहण रथ अब स्वच्छता का प्रतीक नहीं, बल्कि प्रशासनिक उदासीनता और गंभीर नीति विफलता का जीता-जागता उदाहरण बन चुका है।

सरकार ने लोहिया स्वच्छ बिहार अभियान के तहत गांवों को स्वच्छ रखने के लिए कूड़ा गाड़ी, डस्टबिन और जरूरी सफाई संसाधन दिए, लेकिन पचमा गांव में यह सफाई रथ अब एक कोने में खड़ा जंग खा रहा है। डस्टबिनों में कूड़ा सड़ रहा है और उस पर सूखी टहनियों का ढेर मानो सरकारी योजनाओं का मखौल उड़ा रहा हो।
सिर्फ दिखावे की स्वच्छता, जमीनी सच्चाई है सड़ती गंदगी
गांव की गलियों में गंदगी पसरी है, नालियां बजबजा रही हैं, मच्छरों का आतंक है और बीमारियां फैल रही हैं। न कोई सफाईकर्मी दिखता है, न ही कोई निगरानी। ग्रामीणों का कहना है –
“साफ-सफाई सिर्फ पोस्टरों और भाषणों में है, हकीकत में गांव का हाल बुरा है।”
स्वच्छता रथ या लावारिस ढांचा?
तस्वीर में दिख रही ट्रॉली पर लिखा है – “ग्राम पंचायत नारायणपुर, प्रखंड पीरो, जिला भोजपुर”। इसे उपयोग में लाने के बजाय एक कोने में फेंक दिया गया है। यह सवाल उठाता है कि
क्या पंचायत ने कभी इसका उपयोग सही ढंग से किया?
क्या कोई जिम्मेदार अधिकारी इसका निरीक्षण करता है?
स्वच्छता मद का पैसा आखिर गया कहां?
प्रत्येक वार्ड और पंचायत को सालाना लाखों रुपये स्वच्छता कार्यों के लिए मिलते हैं। इसमें शामिल होता है –
- सफाईकर्मी की मजदूरी
- कचरा वाहन की मरम्मत
- डस्टबिनों की सफाई
- कचरा निष्कासन का प्रबंधन
लेकिन कचरा निस्तारण का कोई ठोस तंत्र आज भी नहीं है। यही वजह है कि कूड़ा या तो खेतों के किनारे फेंका जाता है या गांव के किनारों पर ढेर बना दिया जाता है — जिससे पर्यावरण और किसानों की जमीन दोनों प्रदूषित हो रहे हैं।

वैज्ञानिक कचरा प्रबंधन कहां है?
यह सिर्फ व्यवस्था का अभाव नहीं, नीति और विज्ञान के बीच की दूरी का परिणाम है। गांवों में आज भी कचरे को जलाना, खेत में फेंक देना या खुले में सड़ाना आम बात है, जबकि वैज्ञानिक रूप से इसका समाधान निम्नलिखित हो सकता है:
1. कचरा पृथक्करण प्रणाली (Waste Segregation System)
गांव स्तर पर गीले और सूखे कचरे को अलग-अलग जमा किया जाए।
- गीला कचरा → कंपोस्टिंग के लिए
- सूखा कचरा → पुनर्चक्रण (recycling) के लिए
2. कंपोस्टिंग यूनिट (Compost Pit)
प्रत्येक पंचायत में जैविक खाद बनाने हेतु एक कंपोस्ट गड्ढा अनिवार्य रूप से बने। इससे खेतों को जैविक खाद मिलेगा और कचरे से निजात भी।
3. ग्राम कचरा प्रबंधन स्थल (Village Dumping Zone)
प्रत्येक गांव के बाहर उचित दूरी पर “कचरा निष्कासन क्षेत्र” चिन्हित हो जहां नियमित रूप से कूड़ा डंप कर उसका वैज्ञानिक तरीके से निष्पादन हो।
4. पंचायत स्तर पर “वेस्ट मैनेजमेंट कमेटी”
हर पंचायत में एक कचरा प्रबंधन समिति हो, जो पंचायत प्रतिनिधियों, नागरिकों और स्वच्छता कर्मियों से बनी हो। इनकी जिम्मेदारी तय हो और रिपोर्टिंग जिला स्तर तक पहुंचे।
किसान भी हो रहे प्रभावित, पर्यावरण संकट गहराया
गांव में कचरा फेंकने का सबसे सीधा असर उन किसानों पर पड़ रहा है जिनकी जमीन के पास ये कचरे का ढेर लग जाता है। इससे न केवल भूमि प्रदूषित होती है, बल्कि भूजल भी प्रभावित होता है। प्लास्टिक और सड़ी सामग्री से मवेशियों की सेहत भी खतरे में है।
जनता पूछ रही है – जिम्मेदार कौन?
ग्रामीणों का सवाल है:
- कचरा गाड़ी क्यों लावारिस पड़ी है?
- वार्ड सदस्य और मुखिया इसकी निगरानी क्यों नहीं कर रहे?
- सफाईकर्मी कहां हैं, और उन्हें भुगतान क्यों हो रहा है?
- कचरे को निष्क्रिय करने की पंचायत के पास योजना क्या है?
मांग: हो उच्चस्तरीय जांच और जिम्मेदारी तय हो
ग्रामीणों की स्पष्ट मांग है कि – ✅ स्वच्छता मद में खर्च हुए पैसों की पंचायतवार जांच हो। ✅ सफाई व्यवस्था की विफलता के लिए पंचायत सचिव, वार्ड सदस्य व मुखिया को जवाबदेह बनाया जाए। ✅ प्रत्येक पंचायत में सालाना “स्वच्छता ऑडिट” अनिवार्य हो।
निष्कर्ष: योजनाएं तब तक सफल नहीं जब तक ज़मीन पर जवाबदेही न हो
‘स्वच्छ भारत’ की सफलता सिर्फ टीवी विज्ञापनों या स्लोगनों से नहीं आएगी। जब तक गांव के स्तर पर
- कचरा प्रबंधन की वैज्ञानिक प्रणाली नहीं होगी
- अधिकारियों की जवाबदेही तय नहीं होगी
- जनभागीदारी सुनिश्चित नहीं होगी,
तब तक यह सिर्फ एक दिखावटी मिशन ही रहेगा।
📌 अब समय आ गया है जब “स्वच्छता” को सिर्फ योजना नहीं, बल्कि वैज्ञानिक, नैतिक और प्रशासनिक जिम्मेदारी के रूप में लिया जाए। तभी गांव होंगे सचमुच साफ, और भारत बन पाएगा स्वच्छ।